.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ
.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ
.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ
.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ
.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ.ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ .ًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًًٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍٍ
ازاي بتعرفي الناس اللي مبلغة عنه